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Happiness remains hidden in the world of shadows swirling itself like a dormant tornado... It waits for none to show itse...
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कल दोपहर मिली मुझे उपर के माले में रखी एक सूटकेस| धूल की एक परत जमी थी उसपर| उसके काले रंग पर चमकता सफेद सा वी.आई.पी का...
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हम जो लिखना चाहते हैं, वो ये नही है। वो न तो कोई कहानी है न प्रसंग है। अगर कुछ है तो बस व्यथा है उस आदमी की जो एक अँधरे कमरे में फँस गया ...
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उन क़िस्सों से जब थक जाओगे लौट इस दर पर आना तुम| बातें करनी सीख ली होंगी तो दिल का हाल सुनाना तुम| क्या-क्या खोया क्या है पाया...
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आज कल दिमाग में ये बात कई बार आती जाती रहती है। आते वक्त ये एक आदमी के साए के रूप में आती है जो कभी मेरे बगल बैठा हुआ रहता है या साथ चल रहा ...
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Her brain is blank but hands do move arranging the letters making new moves. She writes, she sings to herself and her heart....
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"It's hard to Delete a number, Ignore a call, Deactivate account, Unfriend someone. Moving on and erasing that person from your h...
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The pen waits paper cries They don't want to say goodbye. The words wait and emotions cry They don't want to say goodbye. ...
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सुनो, सन्नाटे में एक आवाज़ गूँज रही है, बहुत कोशिश की मैंने कि मैं समझ सकूँ की ये आवाज़ किसकी है और क्या कहना चाह रही है। पर थक चुकी हूँ, स...
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A thread to be held a feel to be felt Life it is. Mark my words. In labyrinth you walk In puzzles you reply. In mist you see. ...
Sunday, 21 May 2017
Monday, 27 March 2017
धब्बा
'स्याही है, काली, श्याम वर्ण।'
कागज़ है, सफ़ेद, धारियाँ हैं जिसपर।
'अब क्या?'
कुछ लिखना है?
'क्यों?'
अंदर दो-चार दिनों से पता नहीं कुछ हो गया है।
'लिखने से क्या हासिल होगा?'
शायद शान्ति मिले, शायद नहीं। क्या पता जो कोहराम अंदर मचा है, वो कागज़ पर यूँही उतर कर शांत हो जाए।
'ओह! अच्छा। लिखोगी क्या पर?'
लिख देंगे की कैसे अगर कोई अंदर झाँकेगा तो एक कोने में बस सिकुड़ कर बैठा काला सा एक जीता-जागता धब्बा मिलेगा।
'एक बात बताओ, तुम कहती हो ख़ुद हमेशा की तुम काली हो भीतर से, फिर उस काले रंग के कैनवास पर, ये काला धब्बा कैसे दिखेगा?'
मेरे अँदर का कालापन, जो मेरा है, मुझे मुझसे दूर नहीं करता। बस जब-तब मुझे अपनी आग़ोश में ले लेता है। मैं इसे ओढ़ कर खुद को सुरक्षित महसूस करती हूँ। इसमें एक अपनापन है। अनंतकाल तक ये मेरे साथ रहेगा, मेरी परछाईं की तरह, जो भी काली है देखा जाए तो,ऐसा मुझे हमेशा लगता है। ऐसा नहीं की ये कालापन मुझे भीतर से खोखला कर रहा है या किसी और रंग से, एहसास से या हालात से मुझे वंचित रख रहा हो। "अल्टीमेट रिसेप्टर" है मेरा कालापन। हर ख़ुशी से भरी मुस्कराहट, हर ग़म के आँसू, विचलित मन के कारण तनी हुई भौंहों के पीछे की हर इक वजह को ये ख़ुद में समा लेता है। जब बाहर की दुनिया में रात काले आसमान को लाती है, तब मेरे भीतर की काली दुनिया मेरा हाथ पकड़ मुझे बैठाती है, और फिर मेरे हर इक एहसास से मेरा परिचय करा, मेरी हर बीती मुझे फिरसे बता, अपनी बाहों को फैला, मेरे हर रीसते हुए ख्वाब को, इक गठरी में बाँध कर, ये कालापन अपने भी और भीतर ले कर कहीं चला जाता है।
'अरे, फिर तो तुम्हारे भीतर इक ब्लैक बॉडी है, तुम्हारी चमड़ी के नीचे।'
हाँ है तो, पर कहाँ वो तो नहीं पता, पर जहाँ भी ये सब मन-वन है, वहीं होगी ये ब्लैक बॉडी।
'पर फिर, ये काला धब्बा अब तक तुम्हारी ब्लैक बॉडी में शामिल कैसे नहीं हुआ अब तक?'
ये जो काला धब्बा है न, वायरस है शायद कोई, इसकी "रिपेल" करनी की शक्ति बहुत ज़्यादा है। ये न, अपने आसपास के कालेपन से हिलने-मिलने की कोशिश भी नहीं कर रहा। बस मुँह फुलाये बैठा है कोने में। जो कोई एहसास इसकी ओर बढ़ने को कोशिश करे, तो उसे खदेड़ देता है।एहसासों को छोड़ो, इसे न ख़्वाब की कद्र है, न ख़्यालों की। अरे ये तो उस कालेपन को भी काटने को दौड़ता है जो मेरे भीतर न जाने कब से विलीन है। अब बताओ, न मैं इस धब्बे को मिटा सक रही हूँ, न इससे मुझे चैन मिल रहा, और ये अगर भीतर रह गया, तो ये सब ख़ाक कर देगा। सब मिटा देगा।
'ये धब्बा तो महादेवी वर्मा की "कुब्जा" बन गया है।'
भक्क।
'सुनो, तुम तब मिट जाओ।'
हाँ?
'ढाई पन्ना भर दिया तुमने,लिखते-लिखते। अब मत लिखो। बाहर दिन देखो, उजली है। तो तुम भी इस चिड़े हुए काले, बेरंग धब्बे को कोई उजली लोरी सुना दो।'
कर के देख लेती हूँ ये भी, इसे सुला देती हूँ। फिर जब ये गहरी नींद में सो रहा होगा, जिसमे न सपने होंगे न साँस, शायद तब मेरी ये ब्लैक बॉडी ही अपना काम कर ले। इस काले विचित्र धब्बे को खुदमें बसा ले।स्वीकार ही कर ले शायद तब ये धब्बा मुझे और मेरे कालेपन को।
'सुनो, पन्ना, भरा हुआ, धारी वाला, आढ़े-तिरछे अक्षर हैं जिसपर।'
हाँ, कलम, काली, काले स्याही अब शायद ख़त्म है जिसकी।
'अब क्या?'
अब कुछ नहीं लिखना है।
Tuesday, 14 February 2017
भोलेनाथ
जब कई मौसम और बीत गए और पुनः लक्ष्मी ने कहीं बाहर जाने की बात छेड़ी तो इससे पहले वे कहीं और जाने की ज़िद्द करती, विष्णु तपाक से बोल पड़े 'हे भाग्यवान, आप तो भाग्य बनाती या बिगाड़ती हैं, आप खुद क्यों मुझ पर बिगड़ रही हैं, कल नारद आये थे, बता रहे थे की कैलाश पे आज-कल कुछ नया हो रहा है, वहीँ चलते हैं, आप पार्वती से 'सफ़्फ़्रेज' मूवमेंट की बात कर लेना और हम तब तक महादेव के साथ कैलाश के दो चक्कर लगा लेंगे, सेहत का ख्याल रखना भी ज़रूरी है प्रिये, यूँ लेटे-लेटे हड्डियों में कोई नयी बिमारी आ गयी तो, वैसे भी आज कल पृथ्वी लोक पे आना-जाना काफी बढ़ गया है हमारा, क्या पता कौनसी नई 'कम्युनिकेटिव' बिमारी फैली हो, जो मुझे भी लग जाये। थोड़ी खुली हवा में टहलने से स्वास्थ अपने आप ठीक हो जायेगी।" फिर क्या, फिर वे चल दिये।
जैसा को हमेशा होता आया है, पार्वती जी के साथ माँ लक्ष्मी मानसरोवर के तट की ओर बढ़ गयीं और विष्णु आंजू-बांजू नज़र फेर कर मंद-मंद मुस्कुराते हुए शिव के बगल में विराजमान हो गए और बोले, "धन्य है आप महेश, आपने मेरी बात का मान रख। देखिये ये जो आपने फ़सल लगाई है, कितनी सुन्दर प्रतीत हो रही है, इस हलकी-हलकी हवा में झूम रहे ये तो किसी नवजात शिशु की किलकारी के समक्ष प्रतीत होते हैं।" शिव फिर बस मुस्कुरा दिए! न जाने वायु देव को क्या सूझा, वे फसलों में से होते हुए, जहाँ देवादि देव विराजे थे, उस ओर बहने लगे, फिर क्या, पीताम्बर को के स्वांसों में एक अलग ही खुशबु मिश्र होने लगी और वे थोड़ा चौंक ',हे प्रभु, ,आज तो आप चिलम का भी प्रयोग नहीं कर रहे, फिर ये महक कैसी?" भोले नाथ ने बड़ी भोली सी शक्ल बना कर साफ़ साफ़ उत्तर दे दिया, "हे सृष्टि के पालनहार,आपने ही तो कहा था की जिसकी ज़रूरत हो, उसकी खेती कर डालूँ , अब इतने सारे गण हैं, इतने सारे साधू सन्यासी, उनकी ज़रूरर्तों को पूरा करने के लिए मैंने भांग की खेती ही कर दी, इनसे उनकी भी जरुरत पूरी हो गयी और मेरी भि।" उनके इस उत्तर को सुनकर विष्णु अचंभित हो गए और नतमस्तक होकर बोले, हे उमानाथ, आपसे भोला नै कोई हुआ है, ना कोई होगा, आप धन्य हैं प्रभु"। बस बात कुछ और चली, नेताओं की चर्चा, शान्ति की चर्चा, मोह की चर्चा, माया की चर्चा और जब इन चर्चाओं पे विश्राम लगाने का वक़्त आया तो लक्ष्मी और विष्णु को विदा कर, महादेव ने अपनी पलटन को बुलाया और नंदी के पीछे- पीछे अपनी खेतों में चल दिए।
बस कहानी खतम। पैसा हज़म।
Thursday, 2 February 2017
बेंच से उठ के केबिन तक।
मैं सोम से शुक्र आता हूँ।
फिर नौ बजे दफ़्तर पहुँच
उस बेंच पर बैठ जाता हूँ|
बगल मे मेरे बैठी रहती
काली सी एक बैग मेरी।
नाति-पोतों ने अब जिसे
नाम दे दिया "बैगवती"।
अब तो राम सिंघ भी
चाय बिस्कुट पूछ आता है।
हर रोज़ दफ़ा दो बार वो
मुझे देख मुस्कुराता है|
कभी कभी यूँ बैठे-बैठे
मैं इस सोच में पड़ जाता हूँ।
क्यों खुद को इस राह में मैं
निरीह अकेला ही पाता हूँ?
बात किसी बुधवार की है
जब लंच के समय मैं बैठा था।
ऊंघ रहे थे चपरासी सारे
और मैं फिरसे वहीँ जरा लेटा था।
इतने में कंधे पर मेरे
किसी ने अपना हाँथ रखा।
और न जाने कैसे पर ये
विचलित मन थोड़ा शांत हुआ।
पलट के जब देखा मैंने
तो खड़ी वहाँ एक लड़की थी।
आँखों में एक आग था उसके,
जो शायद मुझे देख के भड़की थी।
प्यार से उसने पूछा मुझसे
"बाबा यहाँ क्यों बैठे हो?
काम कोई क्या है तुम्हारा,
जिसके लिए बेंच पर यूँ लेटे हो?"
अश्रु की दो धार न जाने
कैसे आँखों से बह आई।
जो कुछ बीती थी अब तक
वह सब वो ज़ुबाँ पर ले आई।
"साथ चलो तुम मेरे।" कहकर
बैग मेरा काँधे पर लिया।
हर चपरासी को देखकर
उसने तन्द्रा अपनी भंग किया।
तो पहली मंज़िल पर
और हाँ, सामने फाइल मेरी
एक शीशे के टेबल पर थी।
जिसके परे वह अफसर बिटिया
मुस्काती हुई बैठी थी।
Sunday, 30 October 2016
सूटकेस
और बस लौट गई।
कहाँ? बीते कल में।
खो लिया खुदको
अपने उस बचपन में।
फिर खोलकर उसे बैठी,
और सामान सारे पसार कर
ढूढंने लगी कुछ-कुछ।
फिर मिली मुझे कविता मिरी
लिखी थी जो मुस्कुराने पर।
पन्ने मिले मुझे जिसपर
आड़ी-तिरछी लाइनें थी।
कुछ शब्द भी थे, और
रंगीन आकृतियाँ थी।
सच कहूँ तो बचपन था!
फिर क्या ? फिर सामान समेटा।
उस काले बक्से में रखा सबको।
फिर हैंडल पकड़ उसका धीरे से
मैं ऊपर के माले में ले गई उसे
और पीछे शेल्फ पर रख दिया ।
उफ़्फ़! बहुत भारी था वो।
आखिर एक अरसा ढो रहा था।
स्मृतियाँ कैद थी उसमे
वह तो कई राज़ छुपा रहा था।
भीतर अपने बचपन बचा रहा था।
सदा के लिये मुँह मोड़ लिया
Wednesday, 14 September 2016
प्रिये!
दौर दफ़्तर-दफ़्तर दौड़ का |
कहाँ अपनी गुहार लगाऊँ?
किस अफसर के बैठ सामने
(...अगले भाग मे ज़ारी)
Sunday, 6 December 2015
कॉफी
शाम तक राह देखती रही तुम्हारे आने का. आज उस शाम को बीते भी 4 शाम हो चुके हैं|
कहा था तुमसे की तुम्हारी खामोशी बर्दाश्त नही होती मुझसे, शायद मज़ाक लगा था तुम्हे| तभी तो एक बार भी ना कुछ कहा ना नज़र उहा कर देखा ही मुझे|
Wednesday, 8 July 2015
A walk to remember...
She had hardly moved few steps when two bikers entered the campus, They were coming from the opposite direction, the rumble of their bikes and their shouting voices was in contrast to the deadly silence which earlier was spread in the premises. She could feel the fear gripping her. What should she do now? She can easily turn around but the street lights weren’t on. She fastened her pace, looking at the cars parked on the road ignoring the men. She could feel her heart hammering in her chest. Oh! why did she thought going for a walk? What if something bad happened? With each step she took forward, her fear gripped her more. All the negative thoughts started swarming in her head.
She looked around to find nothing but the rumbling noises and not a familiar face to greet her back. Hadn’t she just read about a victim few minutes ago? Was she the next one? She could feel the men coming closer, the tiny beads of sweat had covered her entire face. She knew that it was a bad decision. Being a girl how she could be so irresponsible? How could she even think of having a safe walk? She was busy cursing herself. But as the men drew closer, her eyes were blinded by a sudden flick of light, directed at her face. She recognized the familiar scent of beedi that their watchman accompanies himself with. He jogged towards her as she fastened her pace as well.
The bikers took the cue and sped past her, simply glaring in their direction. As she kept moving towards her apartment, the Watchman accompanied her, whistling away, once in a while, holding his beedi in the other hand. “Goodnight, baby jee. abhi toh ham hai puri raat. Aap aaram se ghar jayiye.” He said walking towards his own little flat at the end of the street. As she climbed up the stairs to her home, the keys jingling in her pockets, she wiped away the sweat on her forehead. Her mother was standing at the door anxious and worried, “Where were you? You are fine?” she said the moment she saw her daughter in front of her. “Yes, I am fine. See. I was with Guard Uncle, helping him in his night rounds.”
As she climbed on her bed, the street lights had been switched on, She was still scared from the incident. The second, she started thinking about it, the Watchman whistled, breaking her chain of thoughts. That’s when she realized that no matter where you are, at which ungodly hour you need help. Some people are always there while other just materialize to help you out.
Weekly
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