Showing posts with label stories. Show all posts
Showing posts with label stories. Show all posts

Sunday, 21 May 2017

शोर और सन्नाटा

सुनो, सन्नाटे में एक आवाज़ गूँज रही है, बहुत कोशिश की मैंने कि मैं समझ सकूँ की ये आवाज़ किसकी है और क्या कहना चाह रही है। पर थक चुकी हूँ, सन्नाटे से भी और उसे चीर कर रख देने वाले इस शोर से भी।
सुनो, आज मैं रात भर जगी रही, दिन में आज इसलिए ज़्यादा सो गई थी मैं, पर न शोर हुआ न सन्नाटा। न रात हुई न सुबह। बोलो, ऐसा भी भला कभी होता है क्या कि रात आँखों से उतरते-उतरते कहीं नाभि तक पहुँच जाए तब पर भी आँखें मिंचो चिड़ियों की आवाज़ पर तो सुबह की वो पहली रोशनी तुम्हारे पलकों पर न बैठे? तुम सुन रहे हो कुछ या कहीं मैं फिरसे ख़ुदसे तो बातें नही कर रही हूँ?
आज मैं भीड़ में फ़िरसे गुम हो गयी। पहले तो परेशान हो गई थी मैं पर फिर बहुत ज़ोर की हँसी आई और मैं वहीं, सड़क के बीचों-बीच रुक कर बस हँसने लगी। तुमने मेरी आदत बिगाड़ कर रख दी थी यार। भीड़ में अचानक से मेरी उंगलियों को अपनी हथेली थामने दे देते थे तो कभी अपनी बाहों से एक बैरियर बना मुझे सिक्योर करके चलते थे। अब? अब मैं धक्के-वक्के खा कर, लुढ़क-वुढ़क कर ही सही पर पहुँच जाती हूँ जहाँ पहुँचना है पर फिर भी पिछले दो सालों से तुम तक नहीं पहुँच पाई।
सुनो, आज ये घड़ी की सुई मुझे घूर रही थी, इसी घड़ी की वजह से तुम उस रात घर से गये थे न। ये पहली चीज़ थी जिसे किसी ने हमें गिफ़्ट किया था। 'हमें', कितने खुश थे तुम।मैने कहा था तुमसे की बस बैटरी ले आओ, दो अपने बंद पड़े दिमाग के लिए और एक इस घड़ी के लिए, पर तुम जैसे तूफान को कोई कैसे समझाए की दुनिया किसी की कब और कैसे उजाड़नी है उसे। तुम चले गए।
सुनो, उस रात की सुबह बाहें फैलाकर आई थी, पर तुम नहीं लौटे। हाँ पर दुकान खुलते ही शर्मा जी ने अपने बेटे के हाँथ उसके रिज़ल्ट की ख़ुशी में मिठाई के डब्बे के साथ ये घड़ी भी भिजवा दी थी। पैसे भी नही लिए थे। उस रात दुकान में घड़ी देकर तुम कहाँ गए किसी को नही पता था। न अब है। मैंने पुलिस के पास जाना छोड़ दिया। हर महीने वो फिर भी आते हैं, मुझे 'अप-टू-डेट' करने पर उन्हें भी पता है कि सब ढकोसलेबाज़ी है, और मुझे भी।
आज जब मैं घर वापस लौटी तो कोई भी बल्ब जल नही रही थी, शायद फ्यूज़ हो गयी हो। तुम्हारी जिंदगी की तरह। बस अँधेरा था, वो फिल्मों वाला नहीं, घुप्प वाला अँधेरा। पूरा घर फिर उसी सन्नाटे में डूब गया मेरे कदम रखते ही, और गूँज रही थी बस एक आवाज़। "टिक...टिक...टिक..."। अब तुम डर मत जाना। हमेशा की तरह जैसे हॉरर मूवी के किसी क्रूशियल सीन पर डर जाते थे। और फिर अचानक से पसरे हुए सन्नाटे में एक शोर हुआ, जिसे मैं समझ नही सकी, पहचान नही सके, धीरे-धीरे वो शोर मेरे अंदर गुम हो गया, मानों की मैं कोई भीड़ हूँ और वो शोर कोई गुमनाम चहरा।
सुनो, तुम उस घड़ी की सुई में ख़ुदको अटका कर, ख़ुदको सुलझाने के बहाने, मेरी हर बात अभी भी सुनते हो न। मुझे लगता था पहले महीने से ही कि तुम इतनी आसानी से मेरा पीछा कहाँ छोड़ोगे, तुम ख़ुद नहीं लौटे तो क्या हुआ, ये घड़ी की सुई जो रुक-रुक कर चलती थी, अब ठीक होकर लौटी थी न। मैंने किसी से कहा नहीं, मुझे पागल समझते वो। अभी भी समझते हैं। तुम मेरी जिंदगी थे और तुम चले गए। मेरी जिंदगी वहीं ख़तम। ये लोग नहीं समझते। उन्हें तो ये भी नही पता कि मैं तुम्हारी जिंदगी थी और मैं हूँ। यानी तुम ज़िंदा हो, तुम्हारी जिंदगी तो अभी भी है ना दुनिया में, तो मैं जी रही हूँ। तुमने मेरी जिंदगी छीन ली, मैं मुझसे हमारी कैसे छिनूँ?

Monday, 27 March 2017

धब्बा

'स्याही है, काली, श्याम वर्ण।'
कागज़ है, सफ़ेद, धारियाँ हैं जिसपर।
'अब क्या?'
कुछ लिखना है?
'क्यों?'
अंदर दो-चार दिनों से पता नहीं कुछ हो गया है।
'लिखने से क्या हासिल होगा?'
शायद शान्ति मिले, शायद नहीं। क्या पता जो कोहराम अंदर मचा है, वो कागज़ पर यूँही उतर कर शांत हो जाए।
'ओह! अच्छा। लिखोगी क्या पर?'
लिख देंगे की कैसे अगर कोई अंदर झाँकेगा तो एक कोने में बस सिकुड़ कर बैठा काला सा एक जीता-जागता धब्बा मिलेगा।
'एक बात बताओ, तुम कहती हो ख़ुद हमेशा की तुम काली हो भीतर से, फिर उस काले रंग के कैनवास पर, ये काला धब्बा कैसे दिखेगा?'
मेरे अँदर का कालापन, जो मेरा है, मुझे मुझसे दूर नहीं करता। बस जब-तब मुझे अपनी आग़ोश में ले लेता है। मैं इसे ओढ़ कर खुद को सुरक्षित महसूस करती हूँ। इसमें एक अपनापन है। अनंतकाल तक ये मेरे साथ रहेगा, मेरी परछाईं की तरह, जो भी काली है देखा जाए तो,ऐसा मुझे हमेशा लगता है। ऐसा नहीं की ये कालापन मुझे भीतर से खोखला कर रहा है या किसी और रंग से, एहसास से या हालात से मुझे वंचित रख रहा हो।  "अल्टीमेट रिसेप्टर" है मेरा कालापन। हर ख़ुशी से भरी मुस्कराहट, हर ग़म के आँसू, विचलित मन के कारण तनी हुई भौंहों के पीछे की हर इक वजह को ये ख़ुद में समा लेता है। जब बाहर की दुनिया में रात काले आसमान को लाती है, तब मेरे भीतर की काली दुनिया मेरा हाथ पकड़ मुझे बैठाती है, और फिर मेरे हर इक एहसास से मेरा परिचय करा, मेरी हर बीती मुझे फिरसे बता, अपनी बाहों को फैला, मेरे हर रीसते हुए ख्वाब को, इक गठरी में बाँध कर, ये कालापन अपने भी और भीतर ले कर कहीं चला जाता है।
'अरे, फिर तो तुम्हारे भीतर इक ब्लैक बॉडी है, तुम्हारी चमड़ी के नीचे।'
हाँ है तो, पर कहाँ वो तो नहीं पता, पर जहाँ भी ये सब मन-वन है, वहीं होगी ये ब्लैक बॉडी।
'पर फिर, ये काला धब्बा अब तक तुम्हारी ब्लैक बॉडी में शामिल कैसे नहीं हुआ अब तक?'
ये जो काला धब्बा है न, वायरस है शायद कोई, इसकी "रिपेल" करनी की शक्ति बहुत ज़्यादा है। ये न, अपने आसपास के कालेपन से हिलने-मिलने की कोशिश भी नहीं कर रहा। बस मुँह फुलाये बैठा है कोने में। जो कोई एहसास इसकी ओर बढ़ने को कोशिश करे, तो उसे खदेड़ देता है।एहसासों को छोड़ो, इसे न ख़्वाब की कद्र है, न ख़्यालों की। अरे ये तो उस कालेपन को भी काटने को दौड़ता है जो मेरे भीतर न जाने कब से विलीन है। अब बताओ, न मैं इस धब्बे को मिटा सक रही हूँ, न इससे मुझे चैन मिल रहा, और ये अगर भीतर रह गया, तो ये सब ख़ाक कर देगा। सब मिटा देगा।
'ये धब्बा तो महादेवी वर्मा की "कुब्जा" बन गया है।'
भक्क।
'सुनो, तुम तब मिट जाओ।'
हाँ?
'ढाई पन्ना भर दिया तुमने,लिखते-लिखते। अब मत लिखो। बाहर दिन देखो, उजली है। तो तुम भी इस चिड़े हुए काले, बेरंग धब्बे को कोई उजली लोरी सुना दो।'
कर के देख लेती हूँ ये भी, इसे सुला देती हूँ। फिर जब ये गहरी नींद में सो रहा होगा, जिसमे न सपने होंगे न साँस, शायद तब मेरी ये ब्लैक बॉडी ही अपना काम कर ले। इस काले विचित्र धब्बे को खुदमें बसा ले।स्वीकार ही कर ले शायद तब ये धब्बा मुझे और मेरे कालेपन को।

'सुनो, पन्ना, भरा हुआ, धारी वाला, आढ़े-तिरछे अक्षर हैं जिसपर।'
हाँ, कलम, काली, काले स्याही अब शायद ख़त्म है जिसकी।
'अब क्या?'
अब कुछ नहीं लिखना है।

Tuesday, 14 February 2017

भोलेनाथ

देखिये पुराणों से जुड़ी है ये घटना, शिव पुराण तो मैंने पढ़ा नहीं, न ही कभी शिव कथा को पूरी तरीके से पढ़ा या सुना है पर आज अचानक से फेसबुक वॉल पे घूमते-घूमते शिव जी की इक तस्वीर आँखों के सामने आ गयी और साथ ही साथ नानी की वो कहानी भी। 
तो हुआ यूँ की इक बार महालक्ष्मी शायद ऐसे ही किसी अलसायी सी दुपहरी में बैठी श्रीविष्णु के चरण-कमल दबा रहीं थी। अब बोरियत तो हो ही जाती है एक ही काम करते-करते। तो वो अपने पतिदेव से हठ करके बोलीं कि "हे प्रभु, आप कभी मुझे कहीं घुमाने क्यों नहीं ले चलते?कितने दिन हो गए, हम कैलाश नहीं गए।" इतना सुन विष्णु ने भी थोड़ा भाव चढ़ाया पर फिर सोचा की अगर कैलाश गए तो हिल-स्टेशन जैसा कुछ ट्रिप हो जायेगा। प्राणप्रिये भी प्रसन्न हो जाएँगी और हम विष्णु लोक की इस ह्यूमिडिटी से भी थोड़ा सा बच जाएंगे। तो दोनों गरुड़ पर विराजमान हो, पहुँच गए कैलाश।
अब कैलाश पर जटाधारी शिव उलंग हो भस्म से विभूषित विराजमान हैं। उनको इस अवस्था में देख लक्ष्मी तो तुरंत हो लीं देवी उमा की ओर। अब इत्ती शिकायतें करने में भी टाइम लगता है ना। कित्ते फेमिनिस्ट प्रपोजल शेयर करने थे। कित्ति सारी महिला सशक्तिकरण परियोजनाओं की नींव रखनी थी। इन सब टाइम कॉन्स्युमिंग चीजों का अंदाज़ा विष्णु लगा के बैठे थे, तो उन्होंने भी शिव के बगल रखे एक चट्टान पे स्थान ग्रहण कर लिया।
आस-पास देखा तो नज़र आई कैलाश की हरी-भरी सुंदरता। क्या पुष्प, क्या लता, क्या चंदन, क्या सुगंध और इन सब के बिच बैठे हुए नंदी। थोड़ा और नज़र फेरा तो पेड़ों के पीछे कुछ खाली स्थान नज़र आया। ये देख शिव को उलझाते हुए वो बोले कि "हे उमानाथ, यूँ जो उलंग-उचक्के टाइप्स बैठ के टाइम पास करते हैं आप, क्या आपको शोभा देता है? आप एक काम करें, ये जो पीछे खाली जमीन है, उपजाऊ भी है, आपकी जटाओं से बह रही गंगा द्वारा पोषित भी हो जायेगी, उसका आप इस्तमाल खेती-बाड़ी में क्यों नहीं कर लेते?"
भोलेनाथ मुस्कुराये, विष्णु को देखा और चुप रहे। पीताम्बर ने अपनी बात को बढ़ाते हुए कहा कि  धान बों लें आप । नंदी से हल जुतवा लीजियेगा। सब गण मिलके मजदूरी कर लेंगे। अरे, ऐसा करके माँ अन्नपूर्णा की जो कृपा बनी रहेगी संसार पे उसके विषय में सोचिए। शिव ने फिर मुस्कुराया, हामी भरी और बाँकी जरूरी विषयों पे बात करने लगे। ये जो आज-कल सारा का सारा कलयुग वो क्या कहते हैं वो हाँ, 'कर्रप्शन', 'स्कैम', जैसी तरह-तरह की विपदाओं से घिरा पड़ा था, उसके रेस्क्यू मिशन की तैय्यारी भी तो करनी थी; फिर ब्रम्हा जी के साथ मिल कर कुछ नए कैरक्टर भी पृथ्वी पर भेजने थे ताकि सिचुएशन अंडर-कण्ट्रोल रह सके। जब महिला आंदोलनों  की आउटलाइन तय हो गई और पृथ्वी के सेल्फ डिस्ट्रक्शन मोड को थोड़ा और डिले कर दिया गया, तो लक्ष्मी और विष्णु ने भी उमा और उनके नाथ से विदा ले लिया।
जब कई मौसम और बीत गए और पुनः लक्ष्मी ने कहीं बाहर जाने की बात  छेड़ी तो इससे पहले वे कहीं और जाने की ज़िद्द करती, विष्णु तपाक से बोल पड़े 'हे भाग्यवान, आप तो भाग्य बनाती या बिगाड़ती हैं, आप खुद क्यों मुझ पर बिगड़ रही हैं, कल नारद आये थे, बता रहे थे की कैलाश पे आज-कल कुछ नया हो रहा है, वहीँ चलते हैं, आप  पार्वती से 'सफ़्फ़्रेज' मूवमेंट की बात कर लेना और हम तब तक महादेव के साथ कैलाश के दो चक्कर लगा लेंगे, सेहत का ख्याल रखना भी ज़रूरी है प्रिये, यूँ लेटे-लेटे हड्डियों में कोई नयी बिमारी आ गयी तो, वैसे भी आज कल पृथ्वी लोक पे आना-जाना काफी बढ़ गया है हमारा, क्या पता कौनसी नई 'कम्युनिकेटिव' बिमारी फैली हो, जो मुझे भी लग जाये। थोड़ी खुली हवा में टहलने से स्वास्थ अपने आप ठीक हो जायेगी।" फिर क्या, फिर वे चल दिये।
 जैसा को हमेशा होता आया है, पार्वती जी के साथ माँ लक्ष्मी मानसरोवर के तट की ओर बढ़ गयीं और विष्णु आंजू-बांजू  नज़र फेर कर मंद-मंद मुस्कुराते हुए शिव के बगल में विराजमान हो गए और बोले, "धन्य है आप महेश, आपने मेरी बात का मान रख। देखिये ये जो आपने फ़सल  लगाई है, कितनी सुन्दर प्रतीत हो रही है, इस  हलकी-हलकी हवा में झूम रहे ये तो किसी नवजात शिशु की किलकारी के समक्ष प्रतीत होते हैं।" शिव फिर बस मुस्कुरा  दिए! न जाने वायु देव को क्या सूझा, वे फसलों में से  होते हुए, जहाँ देवादि देव विराजे थे, उस ओर बहने लगे, फिर क्या, पीताम्बर को के स्वांसों में एक अलग ही खुशबु मिश्र  होने लगी और वे थोड़ा चौंक  ',हे प्रभु, ,आज तो आप चिलम का भी प्रयोग नहीं कर रहे, फिर ये महक कैसी?" भोले नाथ ने बड़ी भोली सी शक्ल बना कर साफ़ साफ़ उत्तर दे दिया, "हे सृष्टि के पालनहार,आपने ही तो कहा था की जिसकी ज़रूरत हो, उसकी खेती कर डालूँ , अब इतने सारे गण हैं, इतने सारे साधू सन्यासी, उनकी ज़रूरर्तों को पूरा करने के लिए मैंने भांग की खेती ही कर दी, इनसे उनकी भी जरुरत पूरी हो गयी और मेरी भि।" उनके इस उत्तर को सुनकर विष्णु अचंभित हो गए और नतमस्तक होकर बोले, हे उमानाथ, आपसे भोला नै कोई हुआ है, ना कोई होगा, आप धन्य हैं प्रभु"। बस बात कुछ और चली, नेताओं की चर्चा, शान्ति की चर्चा, मोह की चर्चा, माया की चर्चा और जब इन चर्चाओं पे विश्राम लगाने का वक़्त आया तो लक्ष्मी और विष्णु को विदा कर, महादेव ने अपनी पलटन को बुलाया और नंदी के पीछे- पीछे अपनी खेतों में चल दिए।

बस कहानी खतम। पैसा हज़म।

Thursday, 2 February 2017

बेंच से उठ के केबिन तक।

छः पचपन की ट्रेन पकड़ कर
मैं सोम से शुक्र आता हूँ।
फिर नौ बजे दफ़्तर पहुँच
उस बेंच पर बैठ जाता हूँ|

बगल मे मेरे बैठी रहती
काली सी एक बैग मेरी।
नाति-पोतों ने अब जिसे
नाम दे दिया "बैगवती"।

अब तो राम सिंघ भी
चाय  बिस्कुट पूछ आता है।
हर रोज़ दफ़ा दो बार वो
मुझे  देख मुस्कुराता है|

कभी कभी यूँ बैठे-बैठे
मैं इस सोच में पड़ जाता हूँ।
क्यों खुद को इस राह में मैं
निरीह अकेला ही पाता हूँ?

बात किसी बुधवार की है
जब लंच के समय मैं बैठा था।
ऊंघ रहे थे चपरासी सारे
और मैं फिरसे वहीँ जरा लेटा था।

इतने में कंधे पर मेरे
किसी ने अपना हाँथ रखा।
और न जाने कैसे पर ये
 विचलित मन थोड़ा शांत हुआ।

पलट के जब देखा मैंने
तो खड़ी वहाँ एक लड़की थी।
 आँखों में एक आग था उसके,
    जो शायद मुझे देख के भड़की थी।

प्यार से उसने पूछा मुझसे
"बाबा यहाँ क्यों बैठे हो?
काम कोई क्या है तुम्हारा,
 जिसके लिए बेंच पर यूँ लेटे हो?"

अश्रु की दो धार न जाने
कैसे आँखों से बह आई।
जो कुछ बीती थी अब तक
वह सब वो ज़ुबाँ पर ले आई।

"साथ चलो तुम मेरे।" कहकर
बैग मेरा काँधे पर लिया।
हर चपरासी को देखकर
उसने तन्द्रा अपनी भंग किया।

तो पहली मंज़िल पर
चौथे कमरे में मैं था।
दाईं गलियारे में जो केबिन
हर बार मुझे बंद दिखता था।

और हाँ, सामने  फाइल मेरी
 एक शीशे के टेबल पर थी।
जिसके परे  वह अफसर बिटिया
मुस्काती हुई बैठी थी।



(अगले भाग में जारी...)








Sunday, 30 October 2016

सूटकेस

कल दोपहर मिली
मुझे उपर के माले 
में रखी एक सूटकेस|
धूल की एक परत 
जमी थी उसपर|

उसके काले रंग पर
चमकता सफेद सा 
वी.आई.पी का लोगो,
जो आज भी वैसा था,
जैसा सालों पहले कभी।   

उसे निचे ले आई मैं
और बस लौट गई।
कहाँ?  बीते कल में।
खो लिया खुदको
अपने उस बचपन में।

फिर खोलकर उसे बैठी,
और सामान सारे पसार कर
ढूढंने लगी कुछ-कुछ।
फिर मिली मुझे कविता मिरी
लिखी थी जो मुस्कुराने पर।

पन्ने मिले मुझे जिसपर
आड़ी-तिरछी लाइनें थी।
कुछ शब्द भी थे, और
रंगीन आकृतियाँ थी।
सच कहूँ तो बचपन था!

फिर क्या ? फिर सामान समेटा।
उस काले बक्से में रखा सबको।
फिर हैंडल पकड़ उसका धीरे से
मैं ऊपर के माले में  ले गई उसे
और पीछे शेल्फ पर रख दिया ।

उफ़्फ़! बहुत भारी था वो।
आखिर एक अरसा ढो रहा था।
स्मृतियाँ कैद थी उसमे
वह तो कई राज़ छुपा रहा था।
भीतर अपने बचपन बचा रहा था।

 
कल मुझे उपर के माले 
में मिली पुरानी एक सूटकेस 
जिसे साफ़ कर दुबारा मैंने 
वहीँ ऊपर छोड़ दिया।
सदा के लिये मुँह मोड़ लिया  






Wednesday, 14 September 2016

प्रिये!


तुम मेट्रो के ए.सी. डिब्बे से,

मैं लोकल की टूटी सीट प्रिये।



तुम जार हो फ्री न्यूटेला के,
मैं जैम की सीसी खाली प्रिये।



तुम कोलाहल के आंधी से,
मैं मुट्ठी भर बरसात प्रिये।

तुम उजियारा दिनकर का,
मैं निपट अँधेरी रात प्रिये।

तुम बोतल सील पानी के,
मैं दो टके की गिलास प्रिये।

तुम रास में डूबे गिरधारी ,
मैं गोपी तुमपे मतवारी प्रिये।

तुम उड़ते नभ् में रहने वाले,
मैं माटी में सनकर राख प्रिये।

तुम हर रिसिव्ड मेसेज से,
मैं खाली पड़ी ड्राफ्ट प्रिये।

तुम ओस की पहली बूँद से,
मैं धुप की तपती आह प्रिये।

तुम मंजिल कोई दुर्लभ वाली,
मैं उस तक जाती हर राह प्रिये।

तुम भीड़ सोफिस्टिकेटेड से,
मैं देहात की अल्हड़ बारात प्रिये।

तुम ब्रेड किसी महँगी बेकरी के,
मैं मिथिला की मखान प्रिये। 

तुम मेट्रो के ए.सी. डिब्बे से,
मैं लोकल की टूटी सीट प्रिये।

दौर दफ़्तर-दफ़्तर दौड़ का |

किस दफ्तर अब मैं जाऊँ
कहाँ अपनी गुहार लगाऊँ?
किस अफसर के बैठ सामने
मैं घंटों तक रपट लिखाऊँ?

किस मुंसी की जेब में डालूँ
नोट करारे एक से पाँच? 
किस टेबल के किस कोने में 
रख दूँ थोड़े भेट-सौगात?

अब याद नहीं हूँ कबसे बैठा
इस खिड़की वाले बेंच पे मैं|
साथ मेरे है ये टूटी चप्पल
रोज़ बनवाता हूँ मैं जिन्हें| 

भौंहे चढ़ाया था जीवन भर
हर बार बदलते शासन  पे
था अबतक मैं हिस्सा जिसका
अचंभित हूँ उस प्रशासन से!

  थके पाऊँ अब चलते-चलते
इस गलियारे से उस पथ को
हर केबिन में खोज चुका हूँ 
पर मिलते न हैं मैनेजर वो|

कभी सुना था बड़ा बाबू से
अक्सर  दस से दो वो आते हैं| 
पता नहीं फिर किस मंज़िल के
किस केबिन में छुप जाते हैं |

क्या खुलेगा कभी वो काउंटर
जहाँ हो जाएगा काम मेरा?
टूटी चप्पल भी कहती है मानो,
"नहीं प्रिये अब कुछ मोल तेरा|"

क्या बची है कोई कतार अभी भी, 
जिसमे अब तक लगा नहीं ?
या फिर है कोई ऐसा फॉरम,
जिसको अब तक भरा नहीं?

कम रोशनी से मोतियाबिंद तक 
सब हो आया इन आँखों को| 
मिला नहीं सौभाग्य इन्हें पर 
कि देख ले कन्फर्मेशन आर्डर वो| 

बता किधर अब जाऊँ मैं?
कहाँ दरख्वास्त लगाऊँ मैं? 
किस मुंसी  या अफसर से,
   ये काम अपना करवाऊँ मैं ?

(...अगले भाग मे ज़ारी)  


Sunday, 6 December 2015

कॉफी

मैने कॉफी की मग नीचे रख, तुमसे सवाल किया ही था की जिस काम के लिए गये थे वो हुआ या नही, की तुम यूँ ही उठ के दरवाज़े से निकल गये| मुझे लगा की शायद कोई ज़रूरी काम याद आ गया हो वरना तुम भला मेरे सवालों को ऐसे अनदेखा कर तो नही जाओगे.
शाम तक राह देखती रही तुम्हारे आने का. आज उस शाम को बीते भी 4 शाम हो चुके हैं|
हाथों मे वही कॉफी की मग लिए जब खिड़की पर खड़ी होती हूँ , तुम्हारी वो पीली शर्ट गली के मुहाने पर लगी चाय की उस दुकान पर लगी बेंच पर दिख जाती है| ज़ी तो किया की वहाँ जाऊं और तुम्हे घिच कर वहाँ से ले आऊँ| पर फिर रोक लिया खुद को| वो बात याद आ गयी जो तुमने कुछ दिन पहले कोई कविता सुनाते वक़्त कही थी| "जिंदगी हर कदम तुम्हें कुछ नया सिखायागी अपनी अल्फाजों में पिरोती ऱहना हर एक सीख को ", ये कहके मुस्कुराने लगे थे तुम| इन दूरियों को वही सिख समझ रही हूँ मैं| वक़्त दरारें ले आता है रिश्तों में पर मर्ज भी तो वही बनता है|
दिल करता है की यहीं सामने बिठा कर रखूं तुम्हे और सारे गीले शिकवे डोर कर दूं. कितना कुछ है बताने के लिए तुम्हे, कितना कुछ तुमसे भी पूछना है पर नही, कभी कभी खुद को समेट लेने मे ही भलाई होती है. हर एहसास को बयाँ कर देना समझदारी नही होती|
कहा था तुमसे की तुम्हारी खामोशी बर्दाश्त नही होती मुझसे, शायद मज़ाक लगा था तुम्हे| तभी तो एक बार भी ना कुछ कहा ना नज़र उहा कर देखा ही मुझे|
चाहती तो मैं भी थी की इससे पहले मैं तुम्हे कोई तक़लीफ़ दूँ, तुम जिंदगी से चले जाओ मेरी| इस अफ़साने को एक दुख भरे अंत के बजाए इक सुहाने मोड़ पर छोड देना चाहती थी मैं, तो समझ लेना वही कर रही हूँ| शब्दों से शुरू हुए इस रिश्ते को, इन शब्दों पर छोड़ रही हूँ मैं. बस इतना ज़रूर याद रखना की किताबों की शेल्फ पर रखी उस नीली मग में कॉफी बस तुम्हे ही दी जाएगी| जब अपनी चाय के प्यालों से उब जाओगे तो भूले बिसरे ही कभी, कविताओं के उन पंक्तियों के साथ एक कप गरमा-गरम कॉफी पीने घर ज़रूर आना| तुम्हारी मनपसंद कूक़िेज़ तुम्हारे कॉफी मग के साथ तुम्हारा इंतेज़ार कर रही होंगी|

Wednesday, 8 July 2015

A walk to remember...

Weeping out the sweat beads materializing on her forehead, she finally locked the garage. It was almost midnight. She looked around, not a single soul was there, even the park was empty. Not even her Guard Uncle. She stood there, hands on her hips, thinking whether she should be there all alone like that or not. She looked at her clothes, shorts and a top. Would it be fine if she just took a round? After such a heavy meal, walking for a minute won’t do any harm, would it? She liked the idea and glanced at her parent’s bedroom. The curtains were drawn against the window. She stood there for few more seconds, analysing her decision thinking about what other people will think if they saw her at this hours, all alone, on her own? She decided it shouldn’t matter. After all their thoughts were not going to keep her healthy and fit.

She had hardly moved few steps when two bikers entered the campus, They were coming from the opposite direction, the rumble of their bikes and their shouting voices was in contrast to the deadly silence which earlier was spread in the premises. She could feel the fear gripping her. What should she do now? She can easily turn around but the street lights weren’t on.  She fastened her pace, looking at the cars parked on the road ignoring the men. She could feel her heart hammering in her chest. Oh! why did she thought going for a walk? What if something bad happened?  With each step she took forward, her fear gripped her more. All the negative thoughts started swarming in her head.
She looked around to find nothing but the rumbling noises and not a familiar face  to greet her back.  Hadn’t she just read about a victim few minutes ago?  Was she the next one?  She could feel the men coming closer, the tiny beads of sweat had covered her entire face. She knew that it was a bad decision. Being a girl how she could be so irresponsible? How could she even think of having a safe walk?  She was busy cursing herself. But as the men drew closer, her eyes were blinded by a sudden flick of light, directed at her face. She recognized the familiar scent of beedi that their watchman accompanies himself with.  He jogged towards her as she fastened her pace as well.

The bikers took the cue and sped past her, simply glaring in their direction. As she kept moving towards her apartment,  the Watchman accompanied her, whistling away, once in a while, holding his beedi in the other hand. “Goodnight, baby jee. abhi toh ham hai puri raat. Aap aaram se ghar jayiye.” He said walking towards his own little flat at the end of the street. As she climbed up the stairs to her home, the keys jingling in her pockets, she wiped away the sweat on her forehead. Her mother was standing at the door anxious and worried, “Where were you? You are fine?” she said the moment she saw her daughter in front of her. “Yes, I am fine. See.  I was with Guard Uncle, helping him in his night rounds.” 

As she climbed on her bed, the street lights had been switched on, She was still scared from the incident. The second, she started thinking about it, the Watchman whistled, breaking her chain of thoughts. That’s when she realized that no matter where you are, at which ungodly hour you need help. Some people are always there while other just materialize to help you out.