Sunday 30 October 2016

सूटकेस

कल दोपहर मिली
मुझे उपर के माले 
में रखी एक सूटकेस|
धूल की एक परत 
जमी थी उसपर|

उसके काले रंग पर
चमकता सफेद सा 
वी.आई.पी का लोगो,
जो आज भी वैसा था,
जैसा सालों पहले कभी।   

उसे निचे ले आई मैं
और बस लौट गई।
कहाँ?  बीते कल में।
खो लिया खुदको
अपने उस बचपन में।

फिर खोलकर उसे बैठी,
और सामान सारे पसार कर
ढूढंने लगी कुछ-कुछ।
फिर मिली मुझे कविता मिरी
लिखी थी जो मुस्कुराने पर।

पन्ने मिले मुझे जिसपर
आड़ी-तिरछी लाइनें थी।
कुछ शब्द भी थे, और
रंगीन आकृतियाँ थी।
सच कहूँ तो बचपन था!

फिर क्या ? फिर सामान समेटा।
उस काले बक्से में रखा सबको।
फिर हैंडल पकड़ उसका धीरे से
मैं ऊपर के माले में  ले गई उसे
और पीछे शेल्फ पर रख दिया ।

उफ़्फ़! बहुत भारी था वो।
आखिर एक अरसा ढो रहा था।
स्मृतियाँ कैद थी उसमे
वह तो कई राज़ छुपा रहा था।
भीतर अपने बचपन बचा रहा था।

 
कल मुझे उपर के माले 
में मिली पुरानी एक सूटकेस 
जिसे साफ़ कर दुबारा मैंने 
वहीँ ऊपर छोड़ दिया।
सदा के लिये मुँह मोड़ लिया  






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