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Sunday, 21 May 2017

शोर और सन्नाटा

सुनो, सन्नाटे में एक आवाज़ गूँज रही है, बहुत कोशिश की मैंने कि मैं समझ सकूँ की ये आवाज़ किसकी है और क्या कहना चाह रही है। पर थक चुकी हूँ, सन्नाटे से भी और उसे चीर कर रख देने वाले इस शोर से भी।
सुनो, आज मैं रात भर जगी रही, दिन में आज इसलिए ज़्यादा सो गई थी मैं, पर न शोर हुआ न सन्नाटा। न रात हुई न सुबह। बोलो, ऐसा भी भला कभी होता है क्या कि रात आँखों से उतरते-उतरते कहीं नाभि तक पहुँच जाए तब पर भी आँखें मिंचो चिड़ियों की आवाज़ पर तो सुबह की वो पहली रोशनी तुम्हारे पलकों पर न बैठे? तुम सुन रहे हो कुछ या कहीं मैं फिरसे ख़ुदसे तो बातें नही कर रही हूँ?
आज मैं भीड़ में फ़िरसे गुम हो गयी। पहले तो परेशान हो गई थी मैं पर फिर बहुत ज़ोर की हँसी आई और मैं वहीं, सड़क के बीचों-बीच रुक कर बस हँसने लगी। तुमने मेरी आदत बिगाड़ कर रख दी थी यार। भीड़ में अचानक से मेरी उंगलियों को अपनी हथेली थामने दे देते थे तो कभी अपनी बाहों से एक बैरियर बना मुझे सिक्योर करके चलते थे। अब? अब मैं धक्के-वक्के खा कर, लुढ़क-वुढ़क कर ही सही पर पहुँच जाती हूँ जहाँ पहुँचना है पर फिर भी पिछले दो सालों से तुम तक नहीं पहुँच पाई।
सुनो, आज ये घड़ी की सुई मुझे घूर रही थी, इसी घड़ी की वजह से तुम उस रात घर से गये थे न। ये पहली चीज़ थी जिसे किसी ने हमें गिफ़्ट किया था। 'हमें', कितने खुश थे तुम।मैने कहा था तुमसे की बस बैटरी ले आओ, दो अपने बंद पड़े दिमाग के लिए और एक इस घड़ी के लिए, पर तुम जैसे तूफान को कोई कैसे समझाए की दुनिया किसी की कब और कैसे उजाड़नी है उसे। तुम चले गए।
सुनो, उस रात की सुबह बाहें फैलाकर आई थी, पर तुम नहीं लौटे। हाँ पर दुकान खुलते ही शर्मा जी ने अपने बेटे के हाँथ उसके रिज़ल्ट की ख़ुशी में मिठाई के डब्बे के साथ ये घड़ी भी भिजवा दी थी। पैसे भी नही लिए थे। उस रात दुकान में घड़ी देकर तुम कहाँ गए किसी को नही पता था। न अब है। मैंने पुलिस के पास जाना छोड़ दिया। हर महीने वो फिर भी आते हैं, मुझे 'अप-टू-डेट' करने पर उन्हें भी पता है कि सब ढकोसलेबाज़ी है, और मुझे भी।
आज जब मैं घर वापस लौटी तो कोई भी बल्ब जल नही रही थी, शायद फ्यूज़ हो गयी हो। तुम्हारी जिंदगी की तरह। बस अँधेरा था, वो फिल्मों वाला नहीं, घुप्प वाला अँधेरा। पूरा घर फिर उसी सन्नाटे में डूब गया मेरे कदम रखते ही, और गूँज रही थी बस एक आवाज़। "टिक...टिक...टिक..."। अब तुम डर मत जाना। हमेशा की तरह जैसे हॉरर मूवी के किसी क्रूशियल सीन पर डर जाते थे। और फिर अचानक से पसरे हुए सन्नाटे में एक शोर हुआ, जिसे मैं समझ नही सकी, पहचान नही सके, धीरे-धीरे वो शोर मेरे अंदर गुम हो गया, मानों की मैं कोई भीड़ हूँ और वो शोर कोई गुमनाम चहरा।
सुनो, तुम उस घड़ी की सुई में ख़ुदको अटका कर, ख़ुदको सुलझाने के बहाने, मेरी हर बात अभी भी सुनते हो न। मुझे लगता था पहले महीने से ही कि तुम इतनी आसानी से मेरा पीछा कहाँ छोड़ोगे, तुम ख़ुद नहीं लौटे तो क्या हुआ, ये घड़ी की सुई जो रुक-रुक कर चलती थी, अब ठीक होकर लौटी थी न। मैंने किसी से कहा नहीं, मुझे पागल समझते वो। अभी भी समझते हैं। तुम मेरी जिंदगी थे और तुम चले गए। मेरी जिंदगी वहीं ख़तम। ये लोग नहीं समझते। उन्हें तो ये भी नही पता कि मैं तुम्हारी जिंदगी थी और मैं हूँ। यानी तुम ज़िंदा हो, तुम्हारी जिंदगी तो अभी भी है ना दुनिया में, तो मैं जी रही हूँ। तुमने मेरी जिंदगी छीन ली, मैं मुझसे हमारी कैसे छिनूँ?

Monday, 27 March 2017

धब्बा

'स्याही है, काली, श्याम वर्ण।'
कागज़ है, सफ़ेद, धारियाँ हैं जिसपर।
'अब क्या?'
कुछ लिखना है?
'क्यों?'
अंदर दो-चार दिनों से पता नहीं कुछ हो गया है।
'लिखने से क्या हासिल होगा?'
शायद शान्ति मिले, शायद नहीं। क्या पता जो कोहराम अंदर मचा है, वो कागज़ पर यूँही उतर कर शांत हो जाए।
'ओह! अच्छा। लिखोगी क्या पर?'
लिख देंगे की कैसे अगर कोई अंदर झाँकेगा तो एक कोने में बस सिकुड़ कर बैठा काला सा एक जीता-जागता धब्बा मिलेगा।
'एक बात बताओ, तुम कहती हो ख़ुद हमेशा की तुम काली हो भीतर से, फिर उस काले रंग के कैनवास पर, ये काला धब्बा कैसे दिखेगा?'
मेरे अँदर का कालापन, जो मेरा है, मुझे मुझसे दूर नहीं करता। बस जब-तब मुझे अपनी आग़ोश में ले लेता है। मैं इसे ओढ़ कर खुद को सुरक्षित महसूस करती हूँ। इसमें एक अपनापन है। अनंतकाल तक ये मेरे साथ रहेगा, मेरी परछाईं की तरह, जो भी काली है देखा जाए तो,ऐसा मुझे हमेशा लगता है। ऐसा नहीं की ये कालापन मुझे भीतर से खोखला कर रहा है या किसी और रंग से, एहसास से या हालात से मुझे वंचित रख रहा हो।  "अल्टीमेट रिसेप्टर" है मेरा कालापन। हर ख़ुशी से भरी मुस्कराहट, हर ग़म के आँसू, विचलित मन के कारण तनी हुई भौंहों के पीछे की हर इक वजह को ये ख़ुद में समा लेता है। जब बाहर की दुनिया में रात काले आसमान को लाती है, तब मेरे भीतर की काली दुनिया मेरा हाथ पकड़ मुझे बैठाती है, और फिर मेरे हर इक एहसास से मेरा परिचय करा, मेरी हर बीती मुझे फिरसे बता, अपनी बाहों को फैला, मेरे हर रीसते हुए ख्वाब को, इक गठरी में बाँध कर, ये कालापन अपने भी और भीतर ले कर कहीं चला जाता है।
'अरे, फिर तो तुम्हारे भीतर इक ब्लैक बॉडी है, तुम्हारी चमड़ी के नीचे।'
हाँ है तो, पर कहाँ वो तो नहीं पता, पर जहाँ भी ये सब मन-वन है, वहीं होगी ये ब्लैक बॉडी।
'पर फिर, ये काला धब्बा अब तक तुम्हारी ब्लैक बॉडी में शामिल कैसे नहीं हुआ अब तक?'
ये जो काला धब्बा है न, वायरस है शायद कोई, इसकी "रिपेल" करनी की शक्ति बहुत ज़्यादा है। ये न, अपने आसपास के कालेपन से हिलने-मिलने की कोशिश भी नहीं कर रहा। बस मुँह फुलाये बैठा है कोने में। जो कोई एहसास इसकी ओर बढ़ने को कोशिश करे, तो उसे खदेड़ देता है।एहसासों को छोड़ो, इसे न ख़्वाब की कद्र है, न ख़्यालों की। अरे ये तो उस कालेपन को भी काटने को दौड़ता है जो मेरे भीतर न जाने कब से विलीन है। अब बताओ, न मैं इस धब्बे को मिटा सक रही हूँ, न इससे मुझे चैन मिल रहा, और ये अगर भीतर रह गया, तो ये सब ख़ाक कर देगा। सब मिटा देगा।
'ये धब्बा तो महादेवी वर्मा की "कुब्जा" बन गया है।'
भक्क।
'सुनो, तुम तब मिट जाओ।'
हाँ?
'ढाई पन्ना भर दिया तुमने,लिखते-लिखते। अब मत लिखो। बाहर दिन देखो, उजली है। तो तुम भी इस चिड़े हुए काले, बेरंग धब्बे को कोई उजली लोरी सुना दो।'
कर के देख लेती हूँ ये भी, इसे सुला देती हूँ। फिर जब ये गहरी नींद में सो रहा होगा, जिसमे न सपने होंगे न साँस, शायद तब मेरी ये ब्लैक बॉडी ही अपना काम कर ले। इस काले विचित्र धब्बे को खुदमें बसा ले।स्वीकार ही कर ले शायद तब ये धब्बा मुझे और मेरे कालेपन को।

'सुनो, पन्ना, भरा हुआ, धारी वाला, आढ़े-तिरछे अक्षर हैं जिसपर।'
हाँ, कलम, काली, काले स्याही अब शायद ख़त्म है जिसकी।
'अब क्या?'
अब कुछ नहीं लिखना है।

Wednesday, 20 January 2016

Life Happens

"It's hard to Delete a number, Ignore a call, Deactivate account, Unfriend someone. Moving on and erasing that person from your heart seems impossible. But it isn't impossible."
Come out of your shell. Reach out to others. Wake up. Because its just a trance. All that dreams you saw was just an illusion. All that future planning of yours was just a distraction.
You have to realize that it was just a phase and it had to pass. Don't run away, don't rush yourself. Accept it and just move on. Its the best you can do to yourself.
Did you silently cry last night because you were remembering the times you spent with that person? When was the last time you cried because you weren't able to sit with your whole family and eat your dinner? Think about it. Give them what they deserve. Give them the smile they want to see on your face. Give them that happiness when you wipe off your tears and greet them with a hearty laugh.
What you thought? That person will stay with you forever? No that's not possible, right? even our very cells, the building blocks of our life die after a period of time so that new baby cells can take their place and keep us alive.When they can leave then why can't a person?
People may come and go from your life but you must go on forever. That's what makes you human after all. See that little girl playing in the park and that boy on the swing. Look at the tiny specks of tiredness in your father's eyes and try to understand what he must go through to keep his family together. One day you will take his responsibility. One day you will take care of your mother and your family. So be happy for that day. Prepare yourself for that day.

Saturday, 4 July 2015

The Last Breath

How it feels
when you die?
Does it pain?
Do you wish
to watch sun rise?
Or watch it set?
Does the memory fade
or your life reflects
in front of your eyes?

Do you hear a song
or see a face
in your mind?
Do you regret
for the choices you made?
Or you feel glad?
Do you want
it to end?
Or want a new start?
How it feels
when you die?
Does it pain?