यादों की तरह, हकीकत पर भी किसी का कोई काबू नहीं है। कौन कब किस दरवाज़ के उस पार हो, या कब ठीक तुम्हारे पीछे, ये कहना मुश्किल है। यहां तक शब्दों को इकठ्ठा कर जोड़ पाना भी मुश्किल था। ये बात कहते कहते कई सारी बातें आंखों के सामने से ठीक वैसे ही गुजर गई जैसे मानो आप प्लेटफॉर्म पर खड़े हैं और राजधानी आपके सामने से यूं पलक झपकते गुजर जाए।
मुस्कुराना, नज़रें चुराना, नज़रें चुरा कर नज़र मिलाना, कदम मिलाना, हाथ बढ़ाना, सर को उठाकर सवाल करना, और फिर चिढ़ा कर सर को झुकाना। भीड़ में ढूंढना, खाने को कुछ लाना, पानी पिलाना, पास बुलाना, बिठाना। बातें बनाना।
जब ये सब हुआ था तब बहुत धीरे धीरे हुआ था, मानो इलास्टिक की तरह मैंने वक्त को खींचे रखा हो। अब ये बहुत जल्दी बीत जाते हैं। और बस इंतजाzर है जो बढ़ते जाता है।
किसी को कहा की उसके बालों को फेर दो उसे अच्छा लगेगा, उसने कंधे झुका लिए और कुर्सी पर पीछे टेक लेकर बैठ गया। कहा की बालों के गुच्छे बनाकर उंगलियां फंसा घींच दो। मन की ये बात की ऐसा मुझसे बेहतर कोई नहीं कर सकता चहरे पर मुस्कान बन कर आ गई। फिर जब तक किसी को नजर न पड़ी उसे एकटक देख लिया।
फिर बाद में उसी ने मुझसे पूछ लिया की क्या उसने अबतक मेरे बालों के साथ खेला या नहीं। और एक बार फिर उसे सामने देखने की चाह मन को घेर गई। मन और उसके बीच अब कोई दरवाजा नहीं। जिस दीवार से किवाड़ जुड़ा हुआ था, वो ढह कर नमक का ढेर हो गया था।
इसी नमक के ढेर से बनी हुई लड़की कभी कभी आदमी के साए से टकड़ा जाती है और हम यादों से निकलकर हकीकत में उसके सामने आ जाते हैं। देखने की चाह पर काबू पा लाने पर जानने की चाह जाग जाती है। और इसकी खिंचन ज्यादा मजबूत होती है। ये आपको लाचार भी बना देती है और हर ने सिरे के लिए तैयार भी।
(19.07.23)
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