Wednesday 14 September 2016

दौर दफ़्तर-दफ़्तर दौड़ का |

किस दफ्तर अब मैं जाऊँ
कहाँ अपनी गुहार लगाऊँ?
किस अफसर के बैठ सामने
मैं घंटों तक रपट लिखाऊँ?

किस मुंसी की जेब में डालूँ
नोट करारे एक से पाँच? 
किस टेबल के किस कोने में 
रख दूँ थोड़े भेट-सौगात?

अब याद नहीं हूँ कबसे बैठा
इस खिड़की वाले बेंच पे मैं|
साथ मेरे है ये टूटी चप्पल
रोज़ बनवाता हूँ मैं जिन्हें| 

भौंहे चढ़ाया था जीवन भर
हर बार बदलते शासन  पे
था अबतक मैं हिस्सा जिसका
अचंभित हूँ उस प्रशासन से!

  थके पाऊँ अब चलते-चलते
इस गलियारे से उस पथ को
हर केबिन में खोज चुका हूँ 
पर मिलते न हैं मैनेजर वो|

कभी सुना था बड़ा बाबू से
अक्सर  दस से दो वो आते हैं| 
पता नहीं फिर किस मंज़िल के
किस केबिन में छुप जाते हैं |

क्या खुलेगा कभी वो काउंटर
जहाँ हो जाएगा काम मेरा?
टूटी चप्पल भी कहती है मानो,
"नहीं प्रिये अब कुछ मोल तेरा|"

क्या बची है कोई कतार अभी भी, 
जिसमे अब तक लगा नहीं ?
या फिर है कोई ऐसा फॉरम,
जिसको अब तक भरा नहीं?

कम रोशनी से मोतियाबिंद तक 
सब हो आया इन आँखों को| 
मिला नहीं सौभाग्य इन्हें पर 
कि देख ले कन्फर्मेशन आर्डर वो| 

बता किधर अब जाऊँ मैं?
कहाँ दरख्वास्त लगाऊँ मैं? 
किस मुंसी  या अफसर से,
   ये काम अपना करवाऊँ मैं ?

(...अगले भाग मे ज़ारी)  


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