Thursday 20 December 2018

कमरा

हम जो लिखना चाहते हैं, वो ये नही है। वो न तो कोई कहानी है न प्रसंग है। अगर कुछ है तो बस व्यथा है उस आदमी की जो एक अँधरे कमरे में फँस गया है और छू कर देख रहा है दीवार की सतह को, खोज रहा है कोई किवाड़ या खिड़की या फिर कोई छेद ही हो जिसे चूहों ने बनाई होगी; पर न आँखों को कुछ नज़र आ रहा होगा, न उसके हाथ ही कुछ देख पा रहे होंगे। अगर कमरे में कोई और होता, जो बिना रोशनी के देख सकने की क्षमता रखता, तो उसे मकड़ी समझ लेता। ख़ैर वहाँ उस आदमी के सिवा बस सन्नाटा है, और ऊँघता हुआ बासी अँधेरा। उसे एक आवाज़ सुनाई दे रही है अब, 'वाइट नॉइज़', उसने कई बार सोने के लिए इसे सुना है, पर ये उसे सुला नही पाती थी, पता नहीं क्यों इन्हें सुनकर उसपर उल्टा प्रभाव पड़ता था,  उसे और भी कई आवाज़ें सुनाई देने लगती थी, मानो परत दर परत वो हर फ्रीक्वेंसी को अलग कर दे रहा हो और एक-एक कर उन्हें अलग से सुनकर एनालाइज़ कर रहा हो। पर आज कुछ फेर बदल है इसमें, सारी की सारी परत आपस में मिलकर इतनी इंटेंसिफ़ाइड हो गई हैं कि मानो कभी इनका शोर बंद ही न हो। अब ये उसे चुभ रही हैं। वो यहाँ से निकलना चाहता है। अँधेरा उसे रास नहीं आ रहा। उसके कदमों की चाल अब बदल रही, पेस पकड़ रहीं है। वो भाग रहा है अब, दीवारों पर जवाब तलाश रहा है, जवाब उस सवाल का जो किसी ने उससे कभी पूछा ही नहीं।


बदहवास यूँ भागते हुए उसे काफ़ी वक़्त हो चुका हैं, उसे अब भूख-प्यास नहीं लगती, वो थकता नहीं, बस कभी-कभी रुक जाता है। रुक जाता है उसके साथ फिर वो सारा कमरा और हो जाती है अचानक बहुत रोशनी, बजने लगती है एक धुन, और जैसे ही उसे लगता है कि बस अब वो पागल हो जाएगा, उसका अँधेरा लौट आता था। रोशनी जो सफ़ेद थी, काली हो जाती है, धुन चुप्पी बन जाती है। इन सब के बीच जैसे ही एक दरवाज़े के हैंडल से उसकी स्लीव फँस जाती है, वो फिरसे भागने लग जाता है। दरवाज़ा एक भ्रम है, उसे यकीन हो गया है। वो यहाँ से निकलना नहीं चाहता अब। वो जवाब ढूंढ रहा है। उसे सवाल तक पहुँचना है। वो गुत्थी ही उसकी सारी मुसीबतों को सुलझा सकती है। कभी कभी उसे लगता है कि जो धुन बीच-बीच में बजती है, अगर वो उसके बोल तक पहुँच जाए तो वो सारा माजरा समझ जाएगा। दुनिया के जितने भी रहस्य है, वो उन सबके तह तक पहुँच जाएगा। पर ये बोल भी उसके साथ कोई खेल कर रहे हैं। वो जितनी ध्यान से उन दो पलों में उसे सुनता, वो उतने और कॉम्प्लेक्स हो जाते । कभी तो उसे लगता कि बस एक और सेकंड सुनने पर उसे सब समझ आ जायेगा लेकिन तभी ही सब पहले जैसा हो जाता। वापस वही अँधेरा। वही चुप्पी। 


इस कमरे से उसका एक अलग संबंध बन चुका है अब, इसके सिवा उसे कुछ भी याद नहीं। इस कमरे में आने से पहले का कुछ अगर उसे याद है तो वो है काजल, जो उसने किसी को एक नीले डिब्बे से निकालकर अपनी कान के पीछे लगाते देखा था और बस देखते रह गया था। तबसे से लेकर अबतक तक उसे और कुछ याद नहीं। वो यहाँ कैसे आया, कबसे है, इत्यादि कुछ ऐसे सवाल थे जिनके  जवाब न उसके पास थे न जिनके बारे में जानने की कोई ख़ास दिलचस्पी। अब वो अँधेरे की भाषा समझने लगा है, अँधेरे को समझने लगा है। उससे जुड़ी छोटी-बड़ी बातों का बोध उसे हो चला है। उसे मालुम है कि ये अँधेरा अपने हर ठिकाने से थोड़ा-थोड़ा रिसकर उस तक आया है उसके ख़ालीपन को भरने के लिए। ये अँधेरा ही है जो हर जगह जा भी सकता है और हर जगह से वापस आ भी सकता है। इसे सबकी ख़बर है, पर सब इसकी ख़बर नहीं रख सकते। रोशनी तो बस एक संयोग है। एक ऐसा संयोग जिसकी सबको आदत हो गयी है। ओवर रेटेड है वो। पर वो समझ चुका है कि ये कालापन ही है जो उसका है। इसी कालेपन में अक्सर वो  ख़ुदको निकालकर हर तरफ पसार चुका था। एक-एक कर वो अपने हर हिस्से को छू छा कर देखता और समझता उनके दुःख को। घंटों उनसे बात करते हुए, हर तक़लीफ़ पर लगाता आहिस्ते से मरहम और जब उसे आश्वाशन हो जाता की वो हिस्सा अब पहले से बेहतर है, वो उभर चुके हैं अपने दर्द से, तो धीरे  से उन्हें लुढ़का देता है ज़मीन पर। लुढ़कते हुए ये हिस्से हिरन बनकर दौड़ने लगते उसकी तरह दिवार के सीध में।  अँधेरे सी उसकी कोई संधि है , वो ये बात जानता है।  अँधेरे का जो टुकड़ा इस कमरे में उसके पास है वो उससे अपने हिसाब से मोल लेता है अब।  वो जानता है कि जिस पल वो चाह के हाथ आगे बढ़ाएगा, ये कालापन उसके हाथ को अपने हाथ में ले लेगा। शायद इस अँधेरे में उसका रिस जाना ही जवाब है, और अँधेरे के किसी दूसरे टुकड़े में वो सवाल उसे ढूंढ रहा है।         

वो बुनने लगता है कहानियाँ इंतज़ार में उस एक पल के जब वो ख़त्म हो चुका होगा। उसे अब न धुन की परवाह है न रोशनी की। उसे यहाँ से जाने का रास्ता मिल गया है। वो पढ़ रहा है मन ही मन कोई अपनी लिखी कहानी जब आती है उसे किसी के चप्पल के घिसने की आवाज़। वो कमरे के बीचों बीच बैठा हुआ है। आवाज़ दीवारों की ओर हो रही है। वो उठकर जाता है उस तरफ और टटोल रहा होता है अँधेरे को जब उसके हाथ पड़ते है एक कँधे पर। वो चौंक कर हाथ हटा लेता है। सामने वाला आदमी भी वहीं रुक जाता है। बहुत देर तक कोई कुछ नहीं बोलता। जो नया आया है, वो दूसरी ओर खड़ा है। काफ़ी देर तक कमरे में कोई कोना न मिलने पर उसे समझ आया कि ये गोल है। उसके पास सवाल हैं पर वो डर के कारण पूछ नहीं पा रहा। कोई जवाब उसे मिल भी नहीं पाता। बिना बोले ही दोनों जानते है कि वे कैद हैं। यहाँ न कोई रास्ता आता है न कोई मंज़िल यहाँ से पाई जा सकती। दूसरे आदमी के साथ वो सब कुछ नहीं हुआ जो इसके साथ हुआ था। वो बस यूँ ही  बैठे-बैठे हँसने लगता है। इसने न वजह पूछी न उसने बताई। पर ये बताना चाहता भी नहीं। ये जब घंटो तक हँस लेता है तो सोचता है कि काश उसने वो चहरा भी देख लिया होता जिसको नज़र से बचाने के लिए वो काला टीका लगाया जा रहा था।