Thursday, 2 February 2017

बेंच से उठ के केबिन तक।

छः पचपन की ट्रेन पकड़ कर
मैं सोम से शुक्र आता हूँ।
फिर नौ बजे दफ़्तर पहुँच
उस बेंच पर बैठ जाता हूँ|

बगल मे मेरे बैठी रहती
काली सी एक बैग मेरी।
नाति-पोतों ने अब जिसे
नाम दे दिया "बैगवती"।

अब तो राम सिंघ भी
चाय  बिस्कुट पूछ आता है।
हर रोज़ दफ़ा दो बार वो
मुझे  देख मुस्कुराता है|

कभी कभी यूँ बैठे-बैठे
मैं इस सोच में पड़ जाता हूँ।
क्यों खुद को इस राह में मैं
निरीह अकेला ही पाता हूँ?

बात किसी बुधवार की है
जब लंच के समय मैं बैठा था।
ऊंघ रहे थे चपरासी सारे
और मैं फिरसे वहीँ जरा लेटा था।

इतने में कंधे पर मेरे
किसी ने अपना हाँथ रखा।
और न जाने कैसे पर ये
 विचलित मन थोड़ा शांत हुआ।

पलट के जब देखा मैंने
तो खड़ी वहाँ एक लड़की थी।
 आँखों में एक आग था उसके,
    जो शायद मुझे देख के भड़की थी।

प्यार से उसने पूछा मुझसे
"बाबा यहाँ क्यों बैठे हो?
काम कोई क्या है तुम्हारा,
 जिसके लिए बेंच पर यूँ लेटे हो?"

अश्रु की दो धार न जाने
कैसे आँखों से बह आई।
जो कुछ बीती थी अब तक
वह सब वो ज़ुबाँ पर ले आई।

"साथ चलो तुम मेरे।" कहकर
बैग मेरा काँधे पर लिया।
हर चपरासी को देखकर
उसने तन्द्रा अपनी भंग किया।

तो पहली मंज़िल पर
चौथे कमरे में मैं था।
दाईं गलियारे में जो केबिन
हर बार मुझे बंद दिखता था।

और हाँ, सामने  फाइल मेरी
 एक शीशे के टेबल पर थी।
जिसके परे  वह अफसर बिटिया
मुस्काती हुई बैठी थी।



(अगले भाग में जारी...)








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