Wednesday 14 September 2016

प्रिये!


तुम मेट्रो के ए.सी. डिब्बे से,

मैं लोकल की टूटी सीट प्रिये।



तुम जार हो फ्री न्यूटेला के,
मैं जैम की सीसी खाली प्रिये।



तुम कोलाहल के आंधी से,
मैं मुट्ठी भर बरसात प्रिये।

तुम उजियारा दिनकर का,
मैं निपट अँधेरी रात प्रिये।

तुम बोतल सील पानी के,
मैं दो टके की गिलास प्रिये।

तुम रास में डूबे गिरधारी ,
मैं गोपी तुमपे मतवारी प्रिये।

तुम उड़ते नभ् में रहने वाले,
मैं माटी में सनकर राख प्रिये।

तुम हर रिसिव्ड मेसेज से,
मैं खाली पड़ी ड्राफ्ट प्रिये।

तुम ओस की पहली बूँद से,
मैं धुप की तपती आह प्रिये।

तुम मंजिल कोई दुर्लभ वाली,
मैं उस तक जाती हर राह प्रिये।

तुम भीड़ सोफिस्टिकेटेड से,
मैं देहात की अल्हड़ बारात प्रिये।

तुम ब्रेड किसी महँगी बेकरी के,
मैं मिथिला की मखान प्रिये। 

तुम मेट्रो के ए.सी. डिब्बे से,
मैं लोकल की टूटी सीट प्रिये।

दौर दफ़्तर-दफ़्तर दौड़ का |

किस दफ्तर अब मैं जाऊँ
कहाँ अपनी गुहार लगाऊँ?
किस अफसर के बैठ सामने
मैं घंटों तक रपट लिखाऊँ?

किस मुंसी की जेब में डालूँ
नोट करारे एक से पाँच? 
किस टेबल के किस कोने में 
रख दूँ थोड़े भेट-सौगात?

अब याद नहीं हूँ कबसे बैठा
इस खिड़की वाले बेंच पे मैं|
साथ मेरे है ये टूटी चप्पल
रोज़ बनवाता हूँ मैं जिन्हें| 

भौंहे चढ़ाया था जीवन भर
हर बार बदलते शासन  पे
था अबतक मैं हिस्सा जिसका
अचंभित हूँ उस प्रशासन से!

  थके पाऊँ अब चलते-चलते
इस गलियारे से उस पथ को
हर केबिन में खोज चुका हूँ 
पर मिलते न हैं मैनेजर वो|

कभी सुना था बड़ा बाबू से
अक्सर  दस से दो वो आते हैं| 
पता नहीं फिर किस मंज़िल के
किस केबिन में छुप जाते हैं |

क्या खुलेगा कभी वो काउंटर
जहाँ हो जाएगा काम मेरा?
टूटी चप्पल भी कहती है मानो,
"नहीं प्रिये अब कुछ मोल तेरा|"

क्या बची है कोई कतार अभी भी, 
जिसमे अब तक लगा नहीं ?
या फिर है कोई ऐसा फॉरम,
जिसको अब तक भरा नहीं?

कम रोशनी से मोतियाबिंद तक 
सब हो आया इन आँखों को| 
मिला नहीं सौभाग्य इन्हें पर 
कि देख ले कन्फर्मेशन आर्डर वो| 

बता किधर अब जाऊँ मैं?
कहाँ दरख्वास्त लगाऊँ मैं? 
किस मुंसी  या अफसर से,
   ये काम अपना करवाऊँ मैं ?

(...अगले भाग मे ज़ारी)