Sunday 6 December 2015

कॉफी

मैने कॉफी की मग नीचे रख, तुमसे सवाल किया ही था की जिस काम के लिए गये थे वो हुआ या नही, की तुम यूँ ही उठ के दरवाज़े से निकल गये| मुझे लगा की शायद कोई ज़रूरी काम याद आ गया हो वरना तुम भला मेरे सवालों को ऐसे अनदेखा कर तो नही जाओगे.
शाम तक राह देखती रही तुम्हारे आने का. आज उस शाम को बीते भी 4 शाम हो चुके हैं|
हाथों मे वही कॉफी की मग लिए जब खिड़की पर खड़ी होती हूँ , तुम्हारी वो पीली शर्ट गली के मुहाने पर लगी चाय की उस दुकान पर लगी बेंच पर दिख जाती है| ज़ी तो किया की वहाँ जाऊं और तुम्हे घिच कर वहाँ से ले आऊँ| पर फिर रोक लिया खुद को| वो बात याद आ गयी जो तुमने कुछ दिन पहले कोई कविता सुनाते वक़्त कही थी| "जिंदगी हर कदम तुम्हें कुछ नया सिखायागी अपनी अल्फाजों में पिरोती ऱहना हर एक सीख को ", ये कहके मुस्कुराने लगे थे तुम| इन दूरियों को वही सिख समझ रही हूँ मैं| वक़्त दरारें ले आता है रिश्तों में पर मर्ज भी तो वही बनता है|
दिल करता है की यहीं सामने बिठा कर रखूं तुम्हे और सारे गीले शिकवे डोर कर दूं. कितना कुछ है बताने के लिए तुम्हे, कितना कुछ तुमसे भी पूछना है पर नही, कभी कभी खुद को समेट लेने मे ही भलाई होती है. हर एहसास को बयाँ कर देना समझदारी नही होती|
कहा था तुमसे की तुम्हारी खामोशी बर्दाश्त नही होती मुझसे, शायद मज़ाक लगा था तुम्हे| तभी तो एक बार भी ना कुछ कहा ना नज़र उहा कर देखा ही मुझे|
चाहती तो मैं भी थी की इससे पहले मैं तुम्हे कोई तक़लीफ़ दूँ, तुम जिंदगी से चले जाओ मेरी| इस अफ़साने को एक दुख भरे अंत के बजाए इक सुहाने मोड़ पर छोड देना चाहती थी मैं, तो समझ लेना वही कर रही हूँ| शब्दों से शुरू हुए इस रिश्ते को, इन शब्दों पर छोड़ रही हूँ मैं. बस इतना ज़रूर याद रखना की किताबों की शेल्फ पर रखी उस नीली मग में कॉफी बस तुम्हे ही दी जाएगी| जब अपनी चाय के प्यालों से उब जाओगे तो भूले बिसरे ही कभी, कविताओं के उन पंक्तियों के साथ एक कप गरमा-गरम कॉफी पीने घर ज़रूर आना| तुम्हारी मनपसंद कूक़िेज़ तुम्हारे कॉफी मग के साथ तुम्हारा इंतेज़ार कर रही होंगी|