Saturday, 18 November 2017

पत्थर की रूह

हम हर दिन हवा में एक पत्थर उछालते हैं पूरा दम लगाकर। पत्थर नीचे गिर जाता है। उसकी रूह मगर हवा में तैरने लगती है। पत्थर इन्विज़िबल है पर उसकी जो रूह है वो है नारंगी रंग की। जब सूरज डूबने लगता है तो मेरे प्यारे पत्थर की रूह सूरज से लिपट जाती है। दुनिया के काली नज़र से चाँद पर धब्बे पड़ चुके हैं, ये उसे पता है। इसलिए वो अकेले सूरज को बचाना चाहती है अपने बल बूते पर।
वो नीचे आती है फिर, यहाँ ही, मिट्टी में मिलने। पर इस दफ़ा उसका रंग पता है, स्याह हो जाता है, आख़िर सबकी बुरी नज़र वो ख़ुदको लगवा लेती है। काला टीका कहीं की। वो थक जाती है इतना सब कुछ कर के। तो फिर मेरी खिड़की पर आकर शीशे से टकराने लगती है। हम समझ जाते हैं। हम दोनों का कोई पुराना रिश्ता था शायद। हम खिड़की खोल देते हैं। वो खिखियाते हुए बगल की कुर्सी पर पसर जाती है। पगलेठ।
हम बनाते हैं फिर एक कप चाय उसके लिए और कॉफ़ी अपने लिए। बड़ी अजब बात है। बंदी चाय पी लेती है समहाऊ! हम उसको फीमेल मान रहे हैं काहेकि सब से लड़कर खुद सब बर्दाश्त कर लेने वाली खूबी अक्सर 'फी द् मेल्स' में ही देखने को मिलती है। आदमी लोग भी क्यूट होते हैं यार। हाँजी, लेट्स नॉट डिवीएट! फिर चाय वाय पी कर वो खिड़की से बाहर मारती है छलाँग शून्य में लेकिन गधी फिर इत्ती वेलॉसिटी से टकड़ाती है नीचे गिरे पत्थर से की उसमें समाहित हो जाती है।
फिर से दिन ढलने पर होता है। फिरसे हम नंगे पाओं बीच रोड टहल रहे होते हैं। फिर मेरे पाओं में कुछ चुभता है। फिर हम वो इनिविज़िबल कंकड़ हवा में उछालते हैं और मेरे सर पर वो ढेला बनकर गिर जाता है। और मेरा दिमाग ठिकाने आ जाता है और हम पागलों वाली बातें लिखना बंद कर देते हैं क्योंकि हम नहीं चाहते कि इस बाली उम्र में हमारे मत्थे कोई रोग मढ़ दिया जाए। हम शांति से कमरे के भीतर आकर फ़ोन चलाने लगते हैं। और स्क्रीन कभी नारंगी होता है, कभी स्याह, कभी सफ़ेद तो कभी फिर ग्रे। इट्स ऑल अबाउट द शेड्स बेबी!

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